GP:प्रवचनसार - गाथा 164 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[एगुत्तरमेगादी] एक (अविभागी-प्रतिच्छेद) से प्रारम्भ कर एक-एक आगे (बढ़ते हुये) । एक से प्रारम्भ कर बढ़ती हुई किस वस्तु को ? [णिद्धत्तणं च लुक्खत्तं] कर्मता को प्राप्त (कर्म-कारक या कर्म-स्वरूप को प्राप्त) एक से प्रारम्भ कर बढ़ती हुई स्निग्धता-रूक्षता को । [भणिदं] कहा गया है । कहाँ तक बढ़ती हुई स्निग्धता-रूक्षता को कहा गया है ? [जाव अणंतत्तमणुभवदि] जब तक अनन्तता का अनुभव करता है, अनन्त पर्यन्त (वृद्धि) को प्राप्त करता है । अनन्तता का अनुभव कैसे करता है ? [परिणामादो] परिणति विशेष से (परिणामी होने से) अनन्तता का अनुभव करता है -- ऐसा अर्थ है । किसके परिणामी होने से वे अनन्तता का अनुभव करते हैं ? [अणुस्स] अणु (पुद्गल परमाणु) के परिणामी होने से वे उसका अनुभव करते हैं ।
वह इसप्रकार -- जल, बकरी के दूध में, गाय के दूध में, भैंस के दूध में स्नेह-चिकनाई की वृद्धि के समान, जैसे जीव में बन्ध के कारण-भूत स्नेह के स्थानीय-रागपना तथा रूक्ष के स्थानीय-द्वेषपना, जघन्य विशुद्धि- संक्लेश स्थान से प्रारम्भ कर परमागम में कहे गये क्रम से उत्कृष्ट विशुद्धि-संक्लेश पर्यन्त बढ़ते हैं; उसीप्रकार पुद्गल परमाणु द्रव्य में भी बन्ध के कारणभूत स्निग्धता और रूक्षता, पहले कहे गये जलादि की तारतम्य (क्रम से बढ़ती हुई) शक्ति के उदाहरण से, एक गुण नामक जघन्य शक्ति से प्रारम्भ कर गुण नामक अविभागी प्रतिच्छेद-रूप दूसरे आदि शक्ति विशेष से बढ़ते हैं । इस प्रकार वे कहाँ तक बढ़ते हैं ? जब तक अनन्त संख्या को प्राप्त नहीं हो जाते तब तक बढ़ते हैं । वे अनन्त संख्या पर्यन्त क्यों बढ़ते हैं ? पुद्गल द्रव्य के परिणामी होने के कारण तथा वस्तु स्वभाव से ही (परिणामी होने के कारण) परिणाम का निषेध किया जाना अशक्य होने से, वे अनन्त पर्यन्त बढ़ते हैं ॥१७६॥