GP:प्रवचनसार - गाथा 167 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[जायंते] उत्पन्न होते हैं । उत्पन्न होनेरूप क्रिया के कर्ता कौन हैं ? [दुपदेसादी खंधा] दो प्रदेशों से आरम्भ कर अनन्त अणु-परमाणु पर्यन्त स्कन्ध उत्पन्न होने रूप क्रिया के कर्ता हैं । कौन उत्पन्न होते हैं ? [पुढविजलतेउवाऊ] पृथ्वी, जल, तेज और वायु उत्पन्न होते हैं । वे कैसे उत्पन्न होते हैं ? [सुहुमा वा बादरा] वे सूक्ष्म अथवा बादर रूप उत्पन्न होते हैं । और भी वे कैसे हैं ? [ससंठाणा] यथा-संभव गोल, चौकोर आदि अपने-अपने संस्थान-आकार से सहित हैं । वे किनसे उत्पन्न होते हैं ? [सगपरिणामेहिं] अपने-अपने स्निग्ध-रूक्ष परिणाम से उत्पन्न होते हैं ।
अब इसका विस्तार करते हैं -- जीव वास्तव में टंकोत्कीर्ण (टाँकी से उकेरे हुये के समान स्थिर) ज्ञायक एक रूप से शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाव ही हैं, पश्चात व्यवहार से अनादि कर्म-बन्ध की उपाधि के वश शुद्धात्म- स्वभाव को प्राप्त नहीं करते हुये पृथ्वी, जल, तेज (अग्नि), वायुकायिक (शरीरों) में उत्पन्न होते हैं; तथापि अपनी अंतरंग सुख-दु:खादि रूप परिणति (दशाओं) के ही अशुद्ध उपादानकारण हैं पृथ्वी आदि शरीरों के आकार रूप परिणति के उपादान कारण नहीं हैं । पृथ्वी आदि शरीरों के उपादान कारण क्यों नही हैं ? यदि ऐसा प्रश्न हो तो उत्तर कहते हैं -- वहाँ स्कन्धों की ही उपादान कारणता होने से, जीव उनके उपादान कारण नहीं हैं ।
इससे ज्ञात होता है कि जीव पुद्गल पिण्डों का कर्ता नहीं है ॥१७९॥