GP:प्रवचनसार - गाथा 168 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[ओगाढगाढणिचिदो] अवगाहन--अवगाहन कर अन्तर के बिना परिपूर्ण भरा हुआ है । परिपूर्ण भरा हुआ वह कौन है ? [लोगो] लोक परिपूर्ण भरा हुआ है । वह कैसा भरा हुआ है ? [सव्व्दो] सर्व ओर से सभी प्रदेशों में भरा हुआ है । वह कर्ताभूत किनसे भरा हुआ है ? [पुग्गलकायेहिं] वह पुद्गलकायों--स्कन्धों से भरा है । किन विशेषता-वाले पुद्गल-कायों से भरा है ? [सुहुमेहि बादरेहि य] इन्द्रियों से ग्रहण करने के अयोग्य सूक्ष्म और उनसे ग्रहण करने योग्य बादर पुद्गल-कायों से भरा है । और कैसे पुद्गल-कायों से भरा है ? [अप्पाओग्गेहिं] अति-सूक्ष्म अथवा अति-स्थूलता के कारण कर्म-वर्गणा सम्बन्धी योग्यता से रहित पुद्गलों से भरा है । और किन विशेषता-वाले पुद्गलों से भरा है ? [जोग्गेहिं] अति-सूक्ष्मता और स्थूलता का अभाव होने से कर्मवर्गणा के योग्य पुद्गलकायों से भरा है ।
यहाँ अर्थ यह है -- निश्चय से शुद्ध स्वरूप होने पर भी, व्यवहार से कर्म उदय के आधीन होने से पृथ्वी आदि पाँच सूक्ष्म-स्थावरत्व को प्राप्त जीवों से, जैसे लोक निरन्तर भरा रहता है, उसी प्रकार पुद्गलों से भी भरा रहता है । इससे ज्ञात होता है कि जिस शरीर अवगाढ़ क्षेत्र में जीव रहता है, वहीं बन्ध के योग्य पुद्गल भी रहते हैं जीव उन्हें बाह्य भाग से नहीं लाता है ॥१८०॥