GP:प्रवचनसार - गाथा 16 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
अब, शुद्धोपयोग से होनेवाली शुद्धात्मस्वभाव की प्राप्ति अन्य कारकों से निरपेक्ष (स्वतंत्र) होने से अत्यन्त आत्माधीन है (लेशमात्र पराधीन नहीं है) यह प्रगट करते हैं :-
शुद्ध उपयोग की भावना के प्रभाव से समस्त घाति-कर्मों के नष्ट होने से जिसने शुद्ध अनन्त-शक्तिवान चैतन्य स्वभाव को प्राप्त किया है, ऐसा यह (पूर्वोक्त) आत्मा,
- शुद्ध अनन्त शक्ति युक्त ज्ञायक स्वभाव के कारण स्वतंत्र होने से जिसने कर्तृत्व के अधिकार को ग्रहण किया है ऐसा,
- शुद्ध अनन्त-शक्ति युक्त ज्ञानरूप से परिणमित होने के स्वभाव के कारण स्वयं ही प्राप्य होने से (स्वयं ही प्राप्त होता होने से) कर्मत्व का अनुभव करता हुआ,
- शुद्ध अनन्त शक्ति युक्त ज्ञानरूप से परिणमित होने के स्वभाव से स्वयं ही साधकतम (उत्कृष्ट साधन) होने से करणता को धारण करता हुआ,
- शुद्ध अनन्त शक्ति युक्त ज्ञानरूप से परिणमित होने के स्वभाव के कारण स्वयं ही कर्म द्वारा समाश्रित होने से (अर्थात् कर्म स्वयं को ही देने में आता होने से) सम्प्रदानता को धारण करता हुआ,
- शुद्ध अनन्त-शक्तिमय ज्ञानरूप से परिणमित होने के समय पूर्व में प्रवर्तमान विकलज्ञान स्वभाव का नाश होने पर भी सहज ज्ञान स्वभाव से स्वयं ही ध्रुवता का अवलम्बन करने से अपादान को धारण करता हुआ, और
- शुद्ध अनन्त-शक्ति युक्त ज्ञानरूप से परिणमित होने के स्वभाव का स्वयं ही आधार होने से अधिकरणता को आत्मसात् करता हुआ
यहाँ यह कहा गया है कि - निश्चय से पर के साथ आत्मा का कारकता का सम्बन्ध नहीं है, कि जिससे शुद्धात्म-स्वभाव की प्राप्ति के लिये सामग्री (बाह्य साधन) ढूँढने की व्यग्रता से जीव (व्यर्थ ही) परतंत्र होते हैं ।