GP:प्रवचनसार - गाथा 170 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
जिस जीव के परिणाम को निमित्तमात्र करके जो-जो यह पुद्गल पिण्ड स्वयमेव कर्मरूप परिणत होते हैं, वे जीव के अनादि संततिरूप (प्रवाहरूप) प्रवर्तमान देहान्तर (भवांतर) रूप परिवर्तन का आश्रय लेकर (वे-वे पुद्गलपिण्ड) स्वयमेव शरीर (शरीररूप, शरीर के होने में निमित्तरूप) बनते हैं । इससे निश्चित होता है कि कर्मरूप परिणत पुद्गलद्रव्यात्मक शरीर का कर्ता आत्मा नहीं है ।