GP:प्रवचनसार - गाथा 171 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[ओरालिओ य देहो] और औदारिक शरीर, [देहो वेउव्विओ य] वैक्रियक शरीर और [तेजसिओ] तैजसिक, [आहारय कम्मइओ] आहारक और कार्मण शरीर [पोग्गलदव्वप्पगा सव्वे] ये पाँचों शरीर पुद्गल-द्रव्य-स्वरूप हैं; सभी मेरे स्वरूप नहीं हैं । ये मेरे स्वरूप क्यों नहीं हैं ? यदि ऐसा प्रश्न हो तो (उत्तर कहते हैं) -- शरीर रहित चैतन्य-चमत्कार-परिणति होने के कारण मेरा, हमेशा ही अचेतन शरीरत्व के साथ विरोध होने से, ये मेरे नहीं हैं ॥१८३॥
इस प्रकार पुद्गल-स्कन्धों के सम्बन्धी विशेष कथन की मुख्यता से दूसरे स्थल में पांच गाथायें पूर्ण हुईं ।
इसप्रकार [अपदेसो परमाणू] इत्यादि ९ गाथाओं द्वारा परमाणु और स्कन्ध के भेद से भेदित पुद्गलों के पिण्ड की उत्पत्ति सम्बन्धी विशेष कथन की मुख्यता से (दो स्थलों में विभक्त) दूसरा विशेषान्तराधिकार समाप्त हुआ ।
अब १९ गाथा पर्यन्त जीव का पुद्गल के साथ बन्ध की मुख्यता से विशेष कथन करते हैं; वहां छह स्थल हैं । उनमें
- सबसे पहले '[अरसमरूवं]' इत्यादि कथनरूप एक गाथा, '[मुत्तो रुवादि]' इत्यादि पूर्वपक्ष के निराकरण की मुख्यता से दो गाथायें -- इसप्रकार पहले स्थल में तीन गाथायें हैं ।
- इसके बाद भावबन्ध की मुख्यता से '[उवओगमओ ]' इत्यादि दूसरे स्थल में दो गाथायें हैं ।
- अब, परस्पर दो पुद्गलों का बन्ध, जीव का रागादि परिणाम के साथ बन्ध और जीव-पुद्गल का बन्ध -- इस प्रकार तीन प्रकार के बन्ध की मुख्यता से '[फासेही पुग्गालाण]' इत्यादि तीसरे स्थल में दो गाथायें हैं ।
- उससे आगे निश्चय से द्रव्य-बन्ध का कारण होने से रागादि-परिणाम ही बन्ध है -- इस कथन की मुख्यता से '[रत्तो बन्धदि]' इत्यादि चौथे स्थल में तीन गाथायें हैं ।
- तदनन्तर भेद-भावना की मुख्यता से '[... पुढवी]' इत्यादि पाँचवें स्थल मे दो गाथायें हैं ।
- तत्पश्चात् जीव रागादि परिणामों का करता है और द्रव्य-कर्मों का नहीं है -- इस कथन की मुख्यता से '[कुव्वं सहावमादा]' इत्यादि छठवें स्थल में सात गाथायें हैं ।
इसप्रकर १९ गाथाओं द्वारा तीसरे विशेषान्तराधिकार में सामूहिक पातनिका हुई ।
तृतीय विशेषान्तराधिकार स्थल विभाजन | |||
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स्थल क्रम | प्रतिपादित विषय | कहाँ से कहाँ पर्यंत गाथाएँ | कुल गाथाएँ |
प्रथम | शुद्ध जीव स्वरूप तथा पूर्वपक्ष परिहार | 184 से 186 | 3 |
द्वितीय | भावबंध की मुख्यता प्रतिपादक | 187 व 188 | 2 |
तृतीय | त्रिविध बंध प्रतिपादक | 189 व 190 | 2 |
चतुर्थ | रागादि परिणाम ही वास्तविक बंध प्रतिपादक | 191 से 193 | 3 |
पंचम | भेद-भावना परक | 194 व 195 | 2 |
षष्टम | जीव रागादि का ही करता, द्रव्य-कर्मों का नहीं | 196 से 202 | 7 |
कुल 6 स्थल | कुल 19 गाथाएँ |