GP:प्रवचनसार - गाथा 178 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
यह आत्मा लोकाकाशतुल्य असंख्यप्रदेशी होने से सप्रदेश है । उसके इन प्रदेशों में कायवर्गणा, वचनवर्गणा और मनोवर्गणा का आलम्बन वाला परिस्पन्द (कम्पन) जिस प्रकार से होता है, उस प्रकार से कर्मपुद्गल के समूह स्वयमेव परिस्पन्द वाले होते हुए प्रवेश भी करते हैं, रहते भी हैं, और जाते भी हैं; और यदि जीव के मोह-राग-द्वेषरूप भाव हों तो बंधते भी हैं । इसलिये निश्चित होता है कि द्रव्यबंध का हेतु भावबंध है ॥१७८॥