GP:प्रवचनसार - गाथा 179 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
रागपरिणत जीव ही नवीन द्रव्यकर्म से बँधता है, वैराग्यपरिणत नहीं बँधता रागपरिणत जीव नवीन द्रव्यकर्म से मुक्त नहीं होता, वैराग्यपरिणत ही मुक्त होता है; रागपरिणत जीव संस्पर्श करने (सम्बन्ध में आने) वाले नवीन द्रव्यकर्म से, और चिरसंचित (दीर्घकाल से संचित ऐसे) पुराने द्रव्यकर्म से बँधता ही है, मुक्त नहीं होता; वैराग्यपरिणत जीव संस्पर्श करने (सम्बन्ध में आने) वाले नवीन द्रव्यकर्म से और चिरसंचित ऐसे पुराने द्रव्यकर्म से मुक्त ही होता है, बँधता नहीं है; इससे निश्चित होता है कि—द्रव्यबंध का साधकतम (उत्कृष्ट हेतु) होने से रागपरिणाम ही निश्चय से बन्ध है ॥१७९॥