GP:प्रवचनसार - गाथा 182 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[भणिदा पुढविप्पमुहा] परमागम में पृथ्वी प्रमुख कहे गये हैं । पृथ्वी आदि वे कौन हैं ? [जीवणिकाया] पृथ्वी आदि वे जीव-निकाय हैं -- जीव-समूह हैं । [अध] अब, वे पृथ्वी आदि कैसे हैं ? [थावरा य तसा] वे स्थावर और त्रस रूप हैं । और वे किस विशेषतावाले हैं ? [अण्णा ते] वे अन्य-भिन्न हैं । वे किससे भिन्न हैं ? [जीवादो] वे शुद्ध-बुद्ध एक जीव स्वभाव से भिन्न हैं । [जीवो वि य तेहिंदो अण्णो] और जीव भी उनसे भिन्न है ।
वह इसप्रकार -- टाँकी से उकेरे हुये के समान, ज्ञायक एक स्वभाव परमात्म-तत्त्व की भावना से रहित जीव द्वारा उपार्जित किये गये -- बाँधे गये जो त्रस-स्थावर नाम-कर्म उनके उदय से उत्पन्न होने के कारण और अचेतन होने के कारण त्रस-स्थावर जीव-निकाय, शुद्ध चैतन्य स्वभावी जीव से भिन्न हैं । और जीव भी उनसे विलक्षण होने के कारण भिन्न है । यहाँ इस प्रकार भेद-विज्ञान उत्पन्न हो जाने पर, मोक्षार्थी जीव स्व-द्रव्य में प्रवृत्ति और पर-द्रव्य-निवृत्ति करता है -- यह भावार्थ है ॥१९४॥