GP:प्रवचनसार - गाथा 185 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
वास्तव में पुद्गलपरिणाम आत्मा का कर्म नहीं है, क्योंकि वह परद्रव्य के ग्रहण-त्याग से रहित है; जो जिसका परिणमाने वाला देखा जाता है वह उसके ग्रहणत्याग से रहित नहीं देखा जाता; जैसे—अग्नि लोहे के गोले में ग्रहण-त्याग रहित होती है । आत्मा तो तुल्य क्षेत्र में वर्तता हुआ भी (परद्रव्य के साथ एकक्षेत्रावगाही होने पर भी) परद्रव्य के ग्रहण-त्याग से रहित ही है । इसलिये वह पुद्गलों को कर्मभाव से परिणमाने वाला नहीं है ॥१८५॥
तब (यदि आत्मा पुद्गलों को कर्मरूप परिणमित नहीं करता तो फिर) आत्मा किसप्रकार पुद्गल कर्मों के द्वारा ग्रहण किया जाता है और छोड़ा जाता है ? इसका अब निरूपण करते हैं :-