GP:प्रवचनसार - गाथा 186 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
सो यह आत्मा परद्रव्य के ग्रहण-त्याग से रहित होता हुआ भी अभी संसारावस्था में, परद्रव्य-परिणाम को निमित्त-मात्र करते हुए केवल स्व-परिणाम-मात्र का—उस स्व-परिणाम के द्रव्यत्वभूत होने से—कर्तृत्व का अनुभव करता हुआ, उसके इसी स्व-परिणाम को निमित्त-मात्र करके कर्म-परिणाम को प्राप्त होती हुई ऐसी पुद्गलरज के द्वारा विशिष्ट अवगाहरूप से ग्रहण किया जाता है और कदाचित् छोड़ा जाता है ।
अब पुद्गल कर्मों की विचित्रता (ज्ञानावरण, दर्शनावरणादिरूप अनेक प्रकारता) को कौन करता है ? इसका निरूपण करते हैं :-