GP:प्रवचनसार - गाथा 188 - अर्थ
From जैनकोष
[सप्रदेश:] प्रदेशयुक्त [सः आत्मा] वह आत्मा [समये] यथाकाल [मोहरागद्वेषै:] मोह-राग-द्वेष के द्वारा [कषायित:] कषायित होने से [कर्म-रजोभि: श्लिष्ट:] कर्मरज से लिप्त या बद्ध होता हुआ [बंध इति प्ररूपित:] बंध कहा गया है ।