राग-परिणाम ही आत्मा का कर्म है, वही पुण्य-पापरूप द्वैत है, आत्मा
- राग-परिणाम का ही कर्ता है,
- उसी का ग्रहण करने वाला है और
- उसी का त्याग करने वाला है;
-- यह, शुद्धद्रव्य का निरूपण-स्वरूप
निश्चय-नय है । और जो पुद्गल-परिणाम आत्मा का कर्म है, वही पुण्य-पापरूप द्वैत है, आत्मा
- पुद्गल-परिणाम का कर्ता है,
- उसका ग्रहण करने वाला और
- छोड़ने वाला है; --
यह नय वह अशुद्ध-द्रव्य का निरूपण-स्वरूप
व्यवहार-नय है । यह दोनों (नय) हैं; क्योंकि शुद्धरूप और अशुद्धरूप -- दोनों प्रकार से द्रव्य की प्रतीति की जाती है । किन्तु यहाँ निश्चय-नय साधकतम (उत्कृष्ट साधक) होने से ग्रहण किया गया है; (क्योंकि) साध्य के शुद्ध होने से द्रव्य के शुद्धत्व का द्योतक (प्रकाशक) होने से निश्चय-नय ही साधकतम है, किन्तु अशुद्धत्व का द्योतक व्यवहार-नय साधकतम नहीं है ॥१८९॥
अब ऐसा कहते हैं कि अशुद्धनय से अशुद्ध आत्मा की ही प्राप्ति होती है :-