GP:प्रवचनसार - गाथा 190 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
जो आत्मा शुद्ध-द्रव्य के निरूपण-स्वरूप निश्चय-नय से निरपेक्ष रहकर अशुद्धद्रव्य के निरूपण-स्वरूप व्यवहार-नय से जिसे मोह उत्पन्न हुआ है ऐसा वर्तता हुआ 'मैं यह हूँ और यह मेरा है' इस प्रकार आत्मीयता से देह धनादिक परद्रव्य में ममत्व नहीं छोड़ता वह आत्मा वास्तव में शुद्धात्म-परिणतिरूप श्रामण्यनामक मार्ग को दूर से छोड़कर अशुद्धात्म-परिणतिरूप उन्मार्ग का ही आश्रय लेता है । इससे निश्चित होता है कि अशुद्ध-नय से अशुद्धात्मा की ही प्राप्ति होती है ॥१९०॥
अब ऐसा निश्चित करते हैं कि शुद्धनय से शुद्धात्मा की ही प्राप्ति होती है :-