GP:प्रवचनसार - गाथा 190 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[ण चयदि जो दु ममत्तिं] जो ममता को नहीं छोड़ता है । ममकार-अहंकार आदि सम्पूर्ण विभावों से रहित, परिपूर्ण निर्मल केवल-ज्ञान आदि अनन्त गुण स्वरूप अपने आत्म-पदार्थ की निश्चल अनुभूति लक्षण निश्चयनय से रहित होने के कारण, व्यवहार से हृदय को मोहित करता हुआ जो ममता--ममत्वभाव (आसक्ति भाव) को नहीं छोड़ता है । किस रूपवाले--कैसे ममत्व भाव को नहीं छोड़ता है -- किन विषयों में ऐसे ममत्व भाव को नहीं छोड़ता है? [देहदविणेसु] देह द्रव्यों में, शरीर में -- शरीर मैं हूँ -- इसप्रकार से और पर द्रव्यों में -- ये मेरे हैं -- इसप्रकार से, शरीर और पर द्रव्यों में ममत्व को नहीं छोड़ता है । [सो सामण्णं चत्त पडिवण्णो होदि उम्मग्गं] वह श्रामण्य को छोड़कर उन्मार्ग को प्राप्त होता है । वह पुरुष जीवन-मरण, लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, शत्रु-मित्र, निंदा-प्रशंसा आदि में परम मध्यस्थता--समताभाव लक्षण श्रामण्य- यतित्व-मुनिपना-चारित्र को दूर से (ही) छोड़कर उससे विपरीत उन्मार्ग -- मिथ्यामार्ग -- उल्टे मार्ग को प्राप्त होता है । और उन्मार्ग से संसार में घूमता है ।
इससे निश्चित हुआ कि अशुद्ध नय से अशुद्धात्मा की ही प्राप्ति होती है ॥२०३॥