GP:प्रवचनसार - गाथा 191 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
जो आत्मा, मात्र अपने विषय में प्रवर्तमान अशुद्ध-द्रव्य-निरूपणात्मक (अशुद्धद्रव्य के निरूपण-स्वरूप) व्यवहार-नय में अविरोधरूप से मध्यस्थ रहकर, शुद्ध-द्रव्य के निरूपण-स्वरूप निश्चय-नय के द्वारा जिसने मोह को दूर किया है ऐसा होता हुआ, 'मैं पर का नहीं हूँ, पर मेरे नहीं हैं' इस प्रकार स्व-पर के परस्पर स्व-स्वामी-सम्बन्ध को छोड़कर, 'शुद्धज्ञान ही एक मैं हूँ', इस प्रकार अनात्मा को छोड़कर, आत्मा को ही आत्मरूप से ग्रहण करके, पर-द्रव्य से भिन्नत्व के कारण आत्मारूप ही एक अग्र में चिन्ता को रोकता है, वह एकाग्र-चिन्तानिरोधक (एक विषय में विचार को रोकने वाला आत्मा) उस एकाग्र-चिन्तानिरोध के समय वास्तव में शुद्धात्मा होता है । इससे निश्चित होता है कि शुद्धनय से ही शुद्धात्मा की प्राप्ति होती है ॥१९१॥
अब ऐसा उपदेश देते हैं कि ध्रुवत्त्व के कारण शुद्धात्मा ही उपलब्ध करने योग्य है :-