GP:प्रवचनसार - गाथा 192 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
शुद्धात्मा सत् और अहेतुक होने से अनादि- अनन्त और स्वतःसिद्ध है, इसलिये आत्मा के शुद्धात्मा ही ध्रुव है, (उसके) दूसरा कुछ भी ध्रुव नहीं है । आत्मा शुद्ध इसलिये है कि उसे परद्रव्य से विभाग (भिन्नत्व) और स्वधर्म से अविभाग है इसलिये एकत्व है । वह एकत्व आत्मा के
- ज्ञानात्मकपने के कारण,
- दर्शनभूतपने के कारण,
- अतीन्द्रिय महा-पदार्थपने के कारण,
- अचलपने के कारण, और
- निरालम्बपने के कारण
- (१-२) जो ज्ञान को ही अपने में धारण कर रखता है और जो स्वयं दर्शनभूत है ऐसे आत्मा का अतन्मय (ज्ञान-दर्शन रहित ऐसा) परद्रव्य से भिन्नत्व है और स्वधर्म से अभिन्नत्व है, इसलिये उसके एकत्व है;
- (३) और जो प्रतिनिश्चित स्पर्श-रस-गंध-वर्णरूप गुण तथा शब्दरूप पर्याय को ग्रहण करने वाली अनेक इन्द्रियों का अतिक्रम (उल्लंघन), समस्त स्पर्श-रस-गंध-वर्णरूप गुणों और शब्दरूप पर्याय को ग्रहण करने वाला एक सत् महा पदार्थ है, ऐसे आत्मा का इन्द्रियात्मक परद्रव्य से विभाग है, और स्पर्शादि के ग्रहणस्वरूप (ज्ञानस्वरूप) स्वधर्म से अविभाग है, इसलिये उसके एकत्व है,
- (४) और क्षणविनाशरूप से प्रवर्तमान ज्ञेयपर्यायों को (प्रतिक्षण नष्ट होनेवाली ज्ञातव्य पर्यायों को) ग्रहण करने और छोड़ने का अभाव होने से जो अचल है ऐसे आत्मा को ज्ञेयपर्यायस्वरूप परद्रव्य से विभाग है और तन्निमित्तक ज्ञानस्वरूप स्वधर्म से अविभाग है, इसलिये उसके एकत्व है;
- (५) और नित्यरूप से प्रवर्तमान (शाश्वत ऐसा) ज्ञेयद्रव्यों के आलम्बन का अभाव होने से जो निरालम्ब है ऐसे आत्मा का ज्ञेय परद्रव्यों से विभाग है और तन्निमित्तक ज्ञानस्वरूप स्वधर्म से अविभाग है,
इस प्रकार आत्मा शुद्ध है क्योंकि चिन्मात्र शुद्धनय उतना ही मात्र निरूपणस्वरूप है (अर्थात् चैतन्यमात्र शुद्धनय आत्मा को मात्र शुद्ध ही निरूपित करता है) । और यह एक ही (यह शुद्धात्मा एक ही) ध्रुवत्व के कारण उपलब्ध करने योग्य है । किसी पथिक के शरीर के अंगों के साथ संसर्ग में आने वाली मार्ग के वृक्षों की अनेक छाया के समान अन्य जो अध्रुव (अन्य जो अध्रुव पदार्थ) उनसे क्या प्रयोजन है ॥१९२॥
अब, ऐसा उपदेश देते हैं कि अध्रुवपने के कारण आत्मा के अतिरिक्त दूसरा कुछ भी उपलब्ध करने योग्य नहीं है :-