GP:प्रवचनसार - गाथा 192 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
'[मण्णे]' इत्यादि पद-खण्डना-रूप से व्याख्यान करते हैं -- [मण्णे] मानता हूँ, ध्याता हूँ, सभी प्रकार से उपादेय-रूप से भावना करता हूँ । ऐसा करने वाला वह कौन है ? [अहं] कर्ता-रूप मैं ऐसा करता हूँ । कर्मता को प्राप्त किसे मानता हूँ? [अप्पगं] सहज परमाह्लाद एक-लक्षण निजात्मा को मानता हूँ । वह आत्मा किस विशेषता वाला है? [सुद्धं] रागादि सम्पूर्ण विभावों से रहित शुद्ध है । वह और किस विशेषता वाला है ? [धुवं] टाँकी से उकेरे हुये के समान ज्ञायक एक स्वभाव-रूप होने से ध्रुव--अविनश्वर है । और भी वह कैसा है? [एवं णाणप्पाणं दंसणभूदं] इसप्रकार पहले कहे हुये अनेक प्रकार से अखण्ड एक ज्ञान दर्शन स्वरूप है । और किस स्वरूपवाला? [अदिंदियं] अतीन्द्रिय है, मूर्त विनश्वर अनेक इन्द्रियों से रहित होने के कारण अमूर्त अविनश्वर एक अतीन्द्रिय स्वभाववाला है । और कैसा है? [महत्थं] मोक्ष लक्षण (नामक) महा-पुरुषार्थ का साधक होने से महार्थ है । और भी किस स्वभाव-वाला है? [अचलं] अतिचपल--चंचल मन-वचन-काय के व्यापार से रहित होने के कारण स्व-स्वरूप में निश्चल--स्थिर है । और भी किस विशेषता-वाला है? [अणालंबं] स्वाधीन द्रव्य-रूप होने से आलम्बन सहित भरित--अवस्थ रूप होने पर भी सम्पूर्ण पराधीन--परद्रव्यों के आलम्बन से रहित होने के कारण निरालम्बन स्वरूप है -- ऐसा अर्थ है ।