GP:प्रवचनसार - गाथा 193 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[ण संति धुवा] ध्रुव-अविनश्वर-नित्य नहीं हैं । किसके ध्रुव नहीं हैं? [जीवस्स] जीव के ध्रुव नहीं हैं । वे कौन धुव नहीं हैं? [देहा वा दविणा वा] शरीर अथवा द्रव्य आदि; सभी प्रकार से शुचिभूत-पवित्र, शरीर-रहित परमात्मा से विलक्षण, औदारिक आदि पाँच शरीर और उसी प्रकार पंचेन्द्रिय भोगोपभोग के साधक पर-द्रव्य ध्रुव नहीं है । शरीर आदि ही मात्र ध्रुव नहीं हैं -- ऐसा नहीं है, वरन् [सुहदुक्खा] विकार रहित परमानन्द एक लक्षण निजात्मा से उत्पन्न सुखरूपी अमृत से विलक्षण सांसारिक सुख-दुःख भी ध्रुव नहीं हैं । [अध] अहो । हे भव्यों ! [सततुमितजणा] शत्रु-मित्र आदि भाव से रहित आत्मा से भिन्न शत्रु और मित्र आदि जन भी ध्रुव नहीं हैं । यदि ये सब अध्रुव हैं तो ध्रुव क्या है? यदि ऐसा प्रश्न हो तो उत्तर कहते हैं -- [धुवो] ध्रुव-शाश्वत है । वह कौन ध्रुव है? [अप्पा] अपना आत्मा ध्रुव है । वह अपना आत्मा किस विशेषता वाला है? [उवओगप्पगो] तीन लोक-रूप उदर (पेट) के विवर (छिद्र) में स्थित सम्पूर्ण द्रव्य-गुण- पर्याय-रूप तीन काल के विषयों को एक साथ जानने में समर्थ ? केवल-ज्ञान और केवल-दर्शन उगयोग स्वरूप है ।
इसप्रकार शरीर आदि सभी की अध्रुवता--अनित्यता जानकर ध्रुव-स्वभावी स्वात्मा की भावना करना चाहिये -- ऐसा तात्पर्य है ॥२०६॥
इसप्रकार अशुद्धनय से अशुद्धात्मा की प्राप्ति होती है -- इस कथनरूप से पहली गाथा शुद्धनय से शुद्धात्मा की प्राप्ति होती है -- इस कथनरूप से दूसरी गाथा, ध्रुवता-नित्यता के कारण,आत्मा ही भावना करने योग्य है -- इस कथन रूप से तीसरी गाथा और आत्मा से भिन्न अध्रुव (संयोगादि) भावना करने योग्य नहीं हैं -- इस कथन रूप से चौथी -- इस प्रकार शुद्धात्मा के विशेष कथन की मुख्यता से पहले स्थल में चार गाथायें पूर्ण हुई ।