GP:प्रवचनसार - गाथा 194 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
इस यथोक्त विधि के द्वारा जो शुद्धात्मा को ध्रुव जानता है, उसे उसी में प्रवृत्ति के द्वारा शुद्धात्मत्व होता है; इसलिये अनन्तशक्तिवाले चिन्मात्र परम आत्मा का एकाग्रसंचेतनलक्षण ध्यान होता है; और इसलिये (उस ध्यान के कारण) साकार (सविकल्प) उपयोगवाले को या अनाकार (निर्विकल्प) उपयोगवाले को—दोनों को अविशेषरूप से एकाग्रसंचेतन की प्रसिद्धि होने से—अनादि संसार से बँधी हुई अतिदृढ़ मोहदुर्ग्रंथि (मोह की दुष्ट गाँठ) छूट जाती है ।
इससे (ऐसा कहा गया है कि) मोहग्रंथि भेद (दर्शनमोहरूपी गाँठ का टूटना) वह शुद्धात्मा की उपलब्धि का फल है ॥११४॥
अब, मोह-ग्रंथि टूटने से क्या होता है सो कहते हैं :-