GP:प्रवचनसार - गाथा 194 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[झादि] ध्यान करता है [जो] कर्तारूप जो । किसका ध्यान करता है? [अप्पगं] निजात्मा का ध्यान करता है । कैसे निजात्मा का ध्यान करता है? [परं] परम, अनन्त-ज्ञानादि गुणों का आधार होने से परम-उत्कृष्ट निजात्मा का ध्यान करता है । पहले क्या करके उसका ध्यान करता है? [एवं जाणित्ता] इस- प्रकार पहले (२०३ से २०६ गाथा पर्यन्त) कही गई पद्धति-रूप निजात्मा की प्राप्ति लक्षण स्व-संवदेन ज्ञान से निजात्मा को जानकर फिर उसका ध्यान करता है । वह कैसा होता हुआ उसका ध्यान करता है? [विशुद्धप्पा] ख्याति, पूजा, लाभ आदि सम्पूर्ण इच्छा समूहों से रहित होने के कारण विशुद्धात्मा होता हुआ उसका ध्यान करता है । और भी कैसा है? [सागारोऽणगारो] सागार-अनागार है । अथवा साकार-अनाकार है । जो आकार अर्थात् विकल्प के साथ वर्तता है वह साकार-आकार सहित ज्ञानोपयोग है, अनाकार-विकल्प रहित दर्शनोपयोग -- उन दोनों से सहित साकार-अनाकार है । अथवा साकार अर्थात् सविकल्प गृहस्थ, अनाकार अर्थात् निर्विकल्प मुनिराज । अथवा साकार अर्थात् लिंग--चिन्हरूप से जो वर्तते हैं वे आकार सहित--साकार यति-मुनि हैं और अनाकार अर्थात् चिन्ह रहित गृहस्थ हैं । [खवेदि सो मोहदुग्गंठि] जो इन गुणों से सहित है, वह मोहरूपी दुर्ग्रंथि--बुरी गाँठ का क्षय करता है । मोह ही दुर्ग्रंथि-मोह दुर्ग्रंथि (इसप्रकार कर्मधारय समास किया) शुद्धात्मा की रुचि का प्रतिबन्धक (रोकने वाला) दर्शनमोह, उसे नष्ट करता है ।
इससे यह निश्चित हुआ कि मोह-रूपी ग्रन्थि का विनाश ही, आत्मोपलब्धि का फल है ॥२०७॥