GP:प्रवचनसार - गाथा 196 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[जो खविदमोहकलुसो] जो मोह-कलुषता के क्षय से सहित है, मोह अर्थात दर्शन-मोह, कलुष अर्थात चारित्र-मोह पहले (२०७ और २०८ वीं) गाथा में कहे गये क्रम से, जिसके द्वारा मोह और कलुषता का क्षय किया गया है, वह मोह और कलुष का क्षय करने वाला है । वह और किस विशेषता वाला है? [विसयविरत्ते] मोह और कलुष रहित अपने आत्मा की अनुभूति से, अच्छी तरह उत्पन्न सुखरूपी अमृत-रस के आस्वाद के बल से कलुष और मोह के उदय से उत्पन्न विषय-सुख की आकांक्षा से रहित होने के कारण, विषयों से विरक्त है । और कैसा है? [समवट्ठिदो] अच्छी तरह अवस्थित है । अच्छी तरह कहाँ अवस्थित है? [सहावे] अपने परमात्म-द्रव्यरूप स्वभाव में अवस्थित है । पहले क्या करके स्वभाव में अवस्थित है? [मणो णिरुंभित्त] विषय-कषाय से उत्पन्न विकल्प-समूह रूप मन को रोककर--निश्चलकर स्वभाव में अवस्थित है । [सो अप्पाणं हवदि झादा] वह इन गुणों से सहित पुरुष अपने आत्मा को ध्याता है । उसी शुद्धात्मा के ध्यान से आत्यन्तिकी (हमेशा-हमेशा के लिये परिपूर्ण) मुक्ति लक्षण शुद्धि को प्राप्त होता है ।
इससे निश्चित हुआ कि शुद्धात्मा के ध्यान से जीव विशुद्ध होता है ।
दूसरी बात यह है कि ध्यान से वास्तव में आत्मा शुद्ध होता है इस (ध्यान के) विषय में चार प्रकार से विशेष कथन करते हैं । वह इसप्रकार --
ध्यान, ध्यान-सन्तान, उसीप्रकार ध्यान-चिन्ता और ध्यान का अन्वयसूचन । वहाँ एकाग्र चिन्ता निरोध -- एक अग्र-विषय में चिन्ता का रुक जाना ध्यान है, और वह ध्यान शुद्ध-अशुद्ध रूप से दो प्रकार का होता है ।
अब ध्यान सन्तान कहते हैं -- जहाँ अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त ध्यान है फिर अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त तत्व की चिंता--तत्त्व-चिन्तन है, फिर अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त ध्यान और फिर तत्व-चिन्तन -- इसप्रकार प्रमत्त-अप्रमत्त (छठवें-सातवें) गुणस्थान के समान अन्तर्मुहूर्त-अन्तर्मुहूर्त व्यतीत होने पर जो परिवर्तन है, वह ध्यान-सन्तान -- ध्यान की परम्परा कही जाती है । और वह धर्म्य-ध्यान सम्बन्धी है । शुक्लध्यान तो उपशमश्रेणी या क्षपक-श्रेणी के आरोहण--पर- चढ़ने पर होता है । वहाँ समय कम होने से परिवर्तन रूप ध्यान-सन्तान घटित नहीं होती है ।
अब ध्यान-चिन्ता कही जाती है -- जहाँ ध्यान सन्तान के समान ध्यान का परिवर्तन नहीं है, ध्यान सम्बन्धी चिंता--चिन्तन है, वहाँ यद्यपि किसी समय ध्यान करता है, तथापि वह ध्यान-चिन्ता कहलाती है ।
अब ध्यानान्वयसूचन कहा जाता है -- जहाँ ध्यान की सामग्री-भूत बारह-अनुप्रेक्षा अथवा ध्यान सम्बन्धी अन्य संवेग-वैराग्य रूप वचन अथवा विशेष कथन है, वह ध्यानान्वयसूचन है ।
अथवा और दूसरे चार प्रकार से ध्यान का व्याख्यान होता है -- ध्याता, ध्यान, ध्यान का फल और ध्येय । अथवा आर्त, रौद्र, धर्म्य और शुक्ल भेद से चार प्रकार रूप ध्यान का विशेष कथन किया जाता है, वह दूसरी जगह कहा गया है ॥२०९॥
इसप्रकार
- आत्मा के परिज्ञान से दर्शनमोह का क्षय होता है -- इस कथनरूप पहली गाथा
- दर्शन-मोह के क्षय से चारित्र-मोह का क्षय होता है -- इस कथन-रूप दूसरी गाथा और
- उन दोनों के क्षय से मोक्ष होता है -- इस प्रतिपादन-रूप तीसरी