GP:प्रवचनसार - गाथा 202 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[आपिच्छ] पूछकर । किसे पूछकर ? [बंधुवग्गं] बंधु समूह को - गोत्र वालों को पूछकर । उसके बाद कैसा होता है ? [विमोचिदो] विमोचित - त्यक्त होता है - छूटता है । किन कर्ताओं से छूटता है ? [गुरुकलत्तपुत्तेहिं] पिता, माता, स्त्री, पुत्रों से छूटता है । और भी क्या करके श्रमण होगा ? [असिज्ज] आश्रयकर श्रमण होगा । किसका आश्रयकर श्रमण होगा ? [णाणदंसणचरित्ततववीरियायारं] ज्ञानाचार , दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार, वीर्याचार का आश्रय लेकर श्रमण होगा ।
अब इसका विस्तार करते हैं - अहो! बन्धु समूह, पिता, माता, स्त्री, पुत्र - यह मेरा आत्मा, अब प्रगट उत्कृष्ट भेदज्ञान ज्योतिवाला होता हुआ, निश्चयनय से अनादि बन्धु वर्ग पिता-माता, स्त्री, पुत्र रूप अपने ज्ञानानन्द एक स्वभावी परमात्मा का ही आश्रय लेता है, इस कारण तुम सब मुझे छोड़ो इसप्रकार क्षमाभाव करता है । उसके बाद और क्या करता है ? उत्कृष्ट चैतन्यमात्र अपने आत्मतत्त्व को सभी प्रकार से उपादेय रूप - ग्रहण करनेवाली (माननेवाली) रुचि, उसकी ही जानकारी और उसकी ही निश्चल अनुभूतिरूप दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, परद्रव्यों सम्बन्धी इच्छाओं से निवृत्ति लक्षण तपश्चरण - तपाचार और अपनी शक्ति को नहीं छिपाना - वीर्याचार इस रूप निश्चय पंचाचार तथा आचार आदि चरणानुयोग के ग्रन्थों में कहे गये उन निश्चय पंचाचार के साधक व्यवहार पंचाचार का आश्रय करता है - ऐसा अर्थ है ।
यहाँ जो गोत्र आदि के साथ क्षमाभाव का व्याख्यान किया है, वह अतिप्रसंग - अमर्यादा के निषेध के लिये किया है । वहाँ (क्षमाभाव का) नियम नहीं है । क्षमाभाव का नियम क्यों नहीं है ? यदि ऐसा प्रश्न हो तो कहते है - प्राचीन काल में अधिकतर भरत, सगर, राम, पाण्डव आदि राजा जिन-दीक्षा ही ग्रहण करते हैं उनके परिवार में जब कोई भी मिथ्यादृष्टि होता है तब धर्म पर उपसर्ग करता है । और यदि कोई ऐसा मानता है कि गोत्र को प्रसन्नकर बाद में तपश्चरण करता हूँ, तो अधिकतर उसका यह तपश्चरण ही नहीं है; किसी भी प्रकार तपश्चरण ग्रहण करने पर भी, यदि गोत्र आदि में ममकार करता है, तो वह तपोधन (मुनि) ही नहीं है । वैसा ही कहा है - 'जो पहले सम्पूर्ण नगर व राज्य को छोड़कर बाद में ममत्व करता है, वह लिंगधारी (मुनि) विशेषरूप से संयम के सार से निस्सार (रहित) है ।'