GP:प्रवचनसार - गाथा 203 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
पश्चात् श्रामण्यार्थी प्रणत और अनुगृहीत होता है । वह इस प्रकार है कि --
- आचरण करने में और आचरण कराने में आने वाली समस्त विरति की प्रवृत्ति के समान आत्मरूप-ऐसे श्रामण्यपने के कारण जो श्रमण है;
- ऐसे श्रामण्य का आचरण करने में और आचरण कराने में प्रवीण होने से जो गुणाढ्य है;
- सर्व लौकिकजनो के द्वारा नि:शंकतया सेवा करने योग्य होने से और कुलक्रमागत (कुलक्रम से उतर आने वाले) क्रूरतादि दोषों से रहित होने से जो कुलविशिष्ट है;
- अंतरंग शुद्धरूप का अनुमान कराने वाला बहिरंग शुद्धरूप होने से जो रूपविशिष्ट है;
- बालकत्व और वृद्धत्व से होने वाली बुद्धिविक्लवता का अभाव होने से तथा यौवनोद्रेक की विक्रिया से रहित बुद्धि होने से जो वयविशिष्ट है; और
- यथोक्त श्रामण्य का आचरण करने तथा आचरण कराने सम्बन्धी पौरुषेय दोषों को निशेषतया नष्ट कर देने से मुमुक्षुओं के द्वारा (प्रायश्चित्तादि के लिये) जिनका बहुआश्रय लिया जाता है इसलिये जो श्रमणों को अतिइष्ट है
अब गुरु द्वारा स्वीकृत होता हुआ वह कैसा होता है ऐसा उपदेश देते हैं -