GP:प्रवचनसार - गाथा 207 - अर्थ
From जैनकोष
[परमेण गुरुणा] परम गुरु के द्वारा प्रदत्त [तदपि लिंगम्] उन दोनों लिंगों को [आदाय] ग्रहण करके, [सं नमस्कृत्य] उन्हें नमस्कार करके [सव्रतां क्रियां श्रुत्वा] व्रत सहित क्रिया को सुनकर [उपस्थित:] उपस्थित (आत्मा के समीप स्थित) होता हुआ [सः] वह [श्रमण: भवति] श्रमण होता है ॥२०७॥