GP:प्रवचनसार - गाथा 207 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
अब (श्रामण्यार्थी) इन दोनों लिंगों को ग्रहण करके और इतना-इतना करके श्रमण होता है -- इसप्रकार भवतिक्रिया (होनेरूप क्रिया) में, बंधुवर्ग से विदा लेनेरूप क्रिया से लेकर शेष सभी क्रियाओं का एक कर्ता दिखलाते हुए, इतने से (अर्थात् इतना करने से) श्रामण्य की प्राप्ति होती है, ऐसा उपदेश करते हैं :-
- परमगुरु -- प्रथम ही अर्हतभट्टारक और उस समय (दीक्षाकाल में) दीक्षाचार्य -- इस यथाजातरूपधरत्व के सूचक बहिरंग तथा अंतरंग लिंग के ग्रहण की विधि के प्रतिपादक होने से, व्यवहार से उस लिंग के देने वाले हैं । इस प्रकार उनके द्वारा दिये गये उन लिंगों को ग्रहण क्रिया के द्वारा संभावित-सम्मानित करके (श्रामण्यार्थी) तन्मय होता है । और फिर
- जिन्होंने सर्वस्व दिया है ऐसे मूल और उत्तर परमगुरु को, भाव्यभावकता के कारण प्रवर्तित इतरेतरमिलन के कारण जिसमें से स्व-पर का विभाग अस्त हो गया है ऐसी नमस्कार क्रिया के द्वारा संभावित (सम्मानित) करके भावस्तुति वन्दनामय होता है ।
- पश्चात् सर्व सावद्ययोग के प्रत्याख्यानस्वरूप एक महाव्रत को सुननेरूप श्रुतज्ञान के द्वारा समय में परिणमित होते हुए आत्मा को जानता हुआ सामायिक में आरूढ़ होता है ।
- पश्चात् प्रतिक्रमण-आलोचना-प्रत्याख्यान-स्वरूप क्रिया को सुननेरूप श्रुतज्ञान के द्वारा त्रैकालिक कर्मों से विविक्त (भिन्न) किये जाने वाले आत्मा को जानता हुआ, अतीत-अनागत-वर्तमान, मन-वचन-कायसबंधी कर्मों से विविक्तता (भिन्नता) में आरूढ़ होता है ।
- पश्चात् समस्त सावद्य कर्मों के आयतनभूत काय का उत्सर्ग (उपेक्षा) करके यथाजातरूप वाले स्वरूप को, एक को एकाग्रतया अवलम्बित करके रहता हुआ, उपस्थित होता है ।