सर्व सावद्ययोग के प्रत्याख्यानस्वरूप एक महाव्रत की व्यक्तियाँ (विशेष, प्रगटताएँ) होने से
- हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह की विरतिस्वरूप पाँच प्रकार के व्रत तथा
- उसकी परिकरभूत पाँच प्रकार की समिति,
- पाँच प्रकार का इन्द्रियरोध,
- लोच,
- छह प्रकार के आवश्यक,
- अचेलपना,
- अस्नान,
- भूमिशयन,
- अदंतधावन (दातुन न करना),
- खड़े-खड़े भोजन, और
- एक बार आहार लेना;
इस प्रकार ये (अट्ठाईस) निर्विकल्प सामायिक-संयम के विकल्प (भेद) होने से श्रमणों के मूलगुण ही हैं । जब (श्रमण) निर्विकल्प सामायिक-संयम में आरूढ़ता के कारण जिसमें विकल्पों का अभ्यास (सेवन) नहीं है ऐसी दशा में से च्युत होता है, तब 'केवल सुवर्णमात्र के अर्थी को कुण्डल, कंकण, अंगूठी आदि को ग्रहण करना (भी) श्रेय है, किन्तु ऐसा नहीं है कि (कुण्डल इत्यादि का ग्रहण कभी न करके) सर्वथा स्वर्ण की ही प्राप्ति करना ही श्रेय है' ऐसा विचार करके मूलगुणों में विकल्परूप से (भेदरूप से) अपने को स्थापित करता हुआ छेदोपस्थापक होता है ॥२०८-२०९॥