GP:प्रवचनसार - गाथा 210 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[लिंगग्यहणे तेसिं] लिंग मुनिवेश के ग्रहण में, उन मुनिराजों के [गुरु त्ति होदि] गुरु होते हैं । वे कौन उनके गुरु होते हैं [पव्वज्जदायगो] विकल्प रहित समाधिरूप परम सामायिक का प्रतिपादन करने वाले, जो वे प्रवज्या-दीक्षा देनेवाले हैं, वे ही दीक्षा गुरु हैं । [छेदेसु अ वट्टवगा] और छेद होने पर, उसका निराकरण कर, पुन: व्रत में, स्थापन करनेवाले जो हैं, [सेसा णिज्जावगा समणा] वे शेष श्रमण-मुनि निर्यापक हैं और शिक्षा गुरु हैं ।
यहाँ अर्थ यह है -- विकल्प रहित समाधिरूप सामायिक की, एकदेश च्युति एकदेश छेद है तथा सर्वथा पूर्णरूप च्युति सकल छेद है - इसप्रकार देश और सकल के भेद से छेद दो प्रकार का है । जो उन दोनों छेदों में प्रायश्चित्त देकर, सम्वेग और वैराग्य को उत्पन्न करनेवाले परमागम के वचनों द्वारा, सम्वरण करते हैं, वे निर्यापक, शिक्षागुरु और श्रुतगुरु कहलाते हैं । दीक्षा देनेवाले दीक्षागुरु है -- ऐसा अभिप्राय है ॥२२४॥