GP:प्रवचनसार - गाथा 213 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[विहरदु] विहार करें । वे कौन विहार करें? [समणो] शत्रु-मित्र आदि में समान चित्तवाले श्रमण, विहार करें । [णिच्चं] नित्य-सभी कालों में । क्या करते हुए वे, विहार करें? [परिहरमाणो] परिहार-निराकरण करते हुए वे विहार करें । किनका परिहार करते हुये वे विहार करें ? [णिबंधाणि] चेतन-अचेतन और मिश्र परद्रव्यों में अनुबन्ध-सम्बन्ध का परिहार करते हुये वे विहार करें । वे कहाँ विहार करें? [अधिवासे] अधिकृत गुरु-कुल वास में अथवा निश्चय में अपने शुद्धाआत्मारूपी वास में [विवासे] अथवा गुरु से भिन्न वास में विहार करें । क्या करके यहाँ विहार करें ? [सामण्णे] अपने शुद्धात्मा की अनुभूति स्वरूप निश्चल चारित्र में [छेदोविहूणो भवीय] छेद से रहित होकर रागादि रहित अपने शुद्धात्मा की अनुभूति लक्षण निश्चय चारित्र से च्युतिरूप छेद-रहित होकर यहाँ विहार करें ।
वह इसप्रकार- गुरु के पास जितने शास्त्र हों, उतने पढ़कर और उसके बाद गुरु से पूछकर समान, शीलवाले तपस्वियों के साथ, भेद-अभेद रत्नत्रय की भावना से, भव्यों को आनन्द उत्पन्न करते हुए, तप-श्रुत-सत्व-एकत्व-सन्तोष रूप पाँच भावनाओं को भाते हुए, तीर्थंकर-परमदेव, गणधरदेव आदि महापुरुषों के चरित्रों को स्वयं भाते हुए और दूसरों को बताते विहार करते हैं ।