GP:प्रवचनसार - गाथा 215 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[णेच्छदि] नहीं चाहते हैं । किसे नहीं चाहते हैं ? [णिबद्धं] निबद्ध-आसक्ति नहीं चाहते हैं । कहां आसक्ति नहीं चाहते हैं? [भत्ते वा]
- शुद्धात्मा की भावना के सहकारि शरीर की स्थिति का हेतु (कारण) होने से, ग्रहण किये गये भोजन-प्रासुक आहार में,
- [खमणे वा] इन्द्रियों के दर्प (प्रबलता) को नष्ट करने वाले कारण स्वरूप होने से, विकल्प रहित समाधि (स्वरूपलीनता) के कारणभूत क्षपण-अनशन-उपवास में,
- [आवसधे वा] परमात्मतत्व की उपलब्धि (पर्याय में प्रगटता) के सहकारभूत पर्वत अथवा गुफा आदि के निवास में,
- [पुणो विहारे वा] शुद्धात्मा की भावना के सहकारीभूत आहार-निहार के लिये, व्यवहार के लिये, व्यवहार में अथवा अन्य स्थान पर जाने के लिये होनेवाले विहार में,
- [उवधिम्हि] शुद्धोपयोगरूप भावना के सहकारीभूत शरीररूप परिग्रह में अथवा ज्ञान के उपकरण (साधन) आदि में,
- [समणम्हि] परमात्मपदार्थ का विचार करने में सहकारी कारणभूत (अन्य) मुनिराज में अथवा समानशील के समूह या सम-समता और शील समूह तपोधन-मुनिराज में,
- [विकधम्हि] और परमसमाधि-पूर्ण स्वरूप लीनता को नष्ट करनेवाली श्रंगार-वीर-रागादि कथा में
यहाँ अर्थ यह है- आगम से विरुद्ध आहार-विहार आदि में (ममत्व तो) पहले से ही निषिद्ध है, (यहाँ तो) योग्य आहार-विहार आदि में भी ममत्व नहीं करना चाहिये (ऐसा कहा है) ॥२२१॥
इसप्रकार संक्षेप से आचार-आराधनादिरूप से कहे गये मुनिराज के, विहार सम्बन्धी विशेष कथन की मुख्यता से चौथे स्थल में तीन गाथायें पूर्ण हुईं ।