GP:प्रवचनसार - गाथा 216 - अर्थ
From जैनकोष
[श्रमणस्य] श्रमण के [शयनासनस्थानचंक्रमणादिषु] शयन, आसन (बैठना), स्थान (खड़े रहना), गमन इत्यादि में [अप्रयता वा चर्या] जो अप्रयत चर्या है [सा] वह [सर्वकाले] सदा [संतता हिंसा इति मता] सतत हिंसा मानी गई है ।