GP:प्रवचनसार - गाथा 217 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
अशुद्धोपयोग अंतरंग छेद है; परप्राणों का व्यपरोप (विच्छेद) वह बहिरंगछेद है । इनमें से अन्तरंग छेद ही विशेष बलवान है, बहिरंग छेद नहीं; क्योंकि—परप्राणों के व्यपरोप का सद्भाव हो या असद्भाव, जो अशुद्धोपयोग के बिना नहीं होता है ऐसे अप्रयत आचार से प्रसिद्ध होने वाला (जानने में आने वाला) अशुद्धोपयोग का सद्भाव जिसके पाया जाता है उसके हिंसा के सद्भाव की प्रसिद्धि सुनिश्चित है । और इस प्रकार जो अशुद्धोपयोग के बिना होता है ऐसे प्रयत्त आचार से प्रसिद्ध होने वाला अशुद्धोपयोग का असद्भाव पाया जाता है, उसके परप्राणों के व्यपरोप के सद्भाव में भी बंध की अप्रसिद्धि होने से, हिंसा के अभाव की प्रसिद्धि सुनिश्चित है। ऐसा होने पर भी (अर्थात् अंतरंग छेद ही विशेष बलवान है बहिरंग छेद नहीं ऐसा होने पर भी) बहिरंग छेद अतल छेद का आयतनमात्र है, इसलिये उसे (बहिरंग छेद को) स्वीकार तो करना ही चाहिये अर्थात् उसे मानना ही चाहिये ॥२१७॥