GP:प्रवचनसार - गाथा 217 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[मरदु व जियदु व जीवो, अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा] जीव मरे अथवा जिये, प्रयत्न रहित के निश्चित हिंसा होती है; बाह्य में दूसरे जीव के मरण अथवा अमरण में भी, विकार रहित अपनी अनुभूति लक्षण प्रयत्न से रहित जीव के, निश्चय शुद्ध चैतन्य प्राणों के व्यपरोपण (घात) रूप निश्चय हिंसा होती है । [पयदस्स णत्थि बन्धो] बहिरंग और अंतरंग प्रयत्न में तत्पर जीव के बन्ध नहीं है । उन्हें किससे बन्ध नहीं है ? [हिंसामेत्तेण] द्रव्य हिंसा मात्र से उन्हें बन्ध नहीं है । कैसे पुरुष को बन्ध नहीं है? [समिदस्स] समित के-शुद्धात्मस्वरूप में अच्छी तरह गत-परिणत समित है, उस समित के और व्यवहार से ईर्या आदि पाँच समितियों से सहित समित के बंध नही है ।
यहाँ अर्थ यह है -- अपने आत्मा में लीनतारूप निश्चय प्राणों के विनाश की कारणभूत रागादि परिणति निश्चय हिंसा कहलाती है, रागादि कि उत्पत्ति से बाह्य में निमित्तभूत परजीवों का घात व्यवहार हिंसा है- इस प्रकार हिंसा दो प्रकार की जाननी चाहिये । किन्तु विशेष यह है कि बाह्य हिंसा हो अथवा नहीं हो स्वस्थभावना (आत्म-लीनता) रूप निश्चय प्राणों का घात होने पर, नियम से निश्चय हिंसा होती है । उस कारण वही मुख्य है ॥२३१॥