GP:प्रवचनसार - गाथा 218 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
जो अशुद्धोपयोग के बिना नहीं होता ऐसे अप्रयत आचार के द्वारा प्रसिद्ध (ज्ञात) होने वाला अशुद्धोपयोग का सद्भाव हिंसक ही है, क्योंकि छहकाय के प्राणों के व्यपरोप के आश्रय से होने वाले बंध की प्रसिद्धि है; और जो अशुद्धोपयोग के बिना होता है ऐसे प्रयत आचार से प्रसिद्ध होनेवाला अशुद्धोपयोग का असद्भाव अहिंसक ही है, क्योंकि पर के आश्रय से होने वाले लेशमात्र भी बंध का अभाव होने से जल में झूलते हुए कमल की भांति निर्लेपता की प्रसिद्धि है । इसलिये उन-उन सर्वप्रकार से अशुद्धोपयोगरूप अन्तरंग छेद निषेध्य त्यागने योग्य है, जिन-जिन प्रकारों से उसका आयतनमात्रभूत परद्रव्यपरोपरूप बहिरंग छेद अत्यन्त निषिद्ध हो ॥२१८॥