GP:प्रवचनसार - गाथा 218 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[अयदाचारो] मल-रहित निर्मल आत्मानुभूतिरूप भावना लक्षण प्रयत्न से रहित होने के कारण अयताचार अर्थात् प्रयत्न रहित हैं । वे कौन प्रयत्न रहित है? [समणो] मुनिराज प्रयत्न रहित हैं । [छस्सु वि कायेसु वधकरो त्ति मदो] छहों ही कायों के वध करनेवाले माने गये हैं । अर्थात् छह काय के जीवों की, वे मुनिराज हिंसा करनेवाले हैं - ऐसा माना गया है - कहा गया है । [चरदि] आचरण करते हैं-वर्तते हैं । कैसे वर्तते हैं? जैसे होते हैं [जदं] यत्नपर-प्रयत्नशील, [जदि] यदि [णिच्चं] हमेशा- सभी कालों में तो [कमलं व जले णिरुवलेवो] जल में कमल के समान निरुपलेप होते हैं ।
इससे क्या कहा गया है अर्थात् इस सब कथन का तात्पर्य क्या है? शुद्ध आत्मा की अनुभूति लक्षण शुद्धोपयोग परिणत पुरुष के, छह काय के जीव समूहरूप लोक में विचरण करते हुए, यद्यपि मात्र बाह्य में द्रव्य हिंसा है, तथापि निश्चय हिंसा नहीं है (अत: वे निर्लेप-तत्संबन्धी कर्मबन्धन से रहित हैं ।); उस कारण शुद्ध परमात्मा की भावना के बल से निश्चय हिंसा ही सर्व तात्पर्य से छोड़ना चाहिये ।