GP:प्रवचनसार - गाथा 219 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
जैसे काय-व्यापार-पूर्वक पर-प्राण-व्यपरोप को अशुद्धोपयोग के सद्भाव और असद्भाव के द्वारा अनैकांतिक बंधरूप होने से उसे (काय-व्यापार-पूर्वक पर-प्राण-व्यपरोप को) छेदपना अनैकांतिक माना गया है, वैसा उपधि-परिग्रह का नहीं है । परिग्रह सर्वथा अशुद्धोपयोग के बिना नहीं होता, ऐसा जो परिग्रह का सर्वथा अशुद्धोपयोग के साथ अविनाभावित्व है उससे प्रसिद्ध होने वाले ऐकान्तिक अशुद्धोपयोग के सद्भाव के कारण परिग्रह तो ऐकान्तिक बंधरूप है, इसलिये उसे (परिग्रह को) छेदपना ऐकान्तिक ही है । इसीलिये भगवन्त अर्हन्तों ने परम श्रमणों ने स्वयं ही पहले ही सर्व परिग्रह को छोड़ा है; और इसीलिये दूसरों को भी, अन्तरंग छेद की भांति प्रथम ही सर्व परिग्रह छोड़ने योग्य है, क्योंकि वह (परिग्रह) अन्तरंग छेद के बिना नहीं होता ॥२१९॥
(( (कलश)
जो कहने के योग्य है कहा गया वह सब्ब ।
इतने से ही चेत लो अति से क्या है अब्ब ॥१४॥))
जो कहने योग्य ही था वह अशेषरूप से कहा गया है, इतने मात्र से ही यदि यहाँ कोई चेत जाये--समझ ले तो, (अन्यथा) वाणी का अतिविस्तार किया जाये तथापि निश्चेतन (जड़वत् / नासमझ) को व्यामोह का जाल वास्तव में अति दुस्तर है ।
अब, इस उपधि (परिग्रह) का निषेध वह अंतरंग छेद का ही निषेध है, ऐसा उपदेश करते हैं --