GP:प्रवचनसार - गाथा 21 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
अब, ज्ञान के स्वरूप का विस्तार और सुख के स्वरूप का विस्तार क्रमशः प्रवर्तमान दो अधिकारों के द्वारा कहते हैं । इनमें से (प्रथम) अतीन्द्रिय ज्ञानरूप परिणमित होने से केवली-भगवान के सब प्रत्यक्ष है, यह प्रगट करते हैं :-
केवली-भगवान इन्द्रियों के आलम्बन से अवग्रह-ईहा-अवाय पूर्वक क्रम से नहीं जानते, (किन्तु) स्वयमेव समस्त आवरण के क्षय के क्षण ही, अनादि-अनन्त, अहेतुक और असाधारण ज्ञान-स्वभाव को ही कारण-रूप ग्रहण करने से तत्काल ही प्रगट होने वाले केवल-ज्ञानोपयोग रूप होकर परिणमित होते हैं; इसलिये उनके समस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का अक्रमिक ग्रहण होने से समक्ष संवेदन की (प्रत्यक्ष ज्ञान की) आलम्बन-भूत समस्त द्रव्य-पर्यायें प्रत्यक्ष ही हैं ॥२१॥