GP:प्रवचनसार - गाथा 220 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
अब, भाव-शुद्धिपूर्वक बहिरंग परिग्रह का त्याग किये जाने पर अन्तरंग परिग्रह का त्याग किया गया ही होता है, एसा निर्देश करते हैं -
[ण हि णिरवेक्खो चागो] निरपेक्ष त्याग यदि नहीं हो तो-परिग्रह का त्याग सर्वथा निरपेक्ष नहीं होता है, किन्तु कुछ भी कपड़े-बर्तन आदि ग्रहण करने योग्य है-यदि आप ऐसा कहते हैं, तो हे शिष्य! [ण हवदि भिक्खुस्स आसयविसुद्धी] मुनि के आशय की विशुद्धि नहीं होती है, तब सापेक्ष परिणाम होने पर मुनिराज के चित्त की शुद्धि नहीं होती । [अविसुद्धस्स हि चित्ते] शुद्धात्मा की भावनारूप शुद्धि से रहित, मुनिराज के मन में वास्तव में [कहं तु कम्मक्खओ विहिओ] कर्मों का क्षय उचित कैसे होगा?
इससे यह कहा गया है कि जैसे बाह्य में तुष (छिलका) का सद्भाव होने पर चावल के अन्दर की शुद्धि करना संभव नहीं है, उसीप्रकार बाह्य परिग्रह की इच्छा विद्यमान होने पर, निर्मल शुद्धात्मा की अनुभूतिरूप मन की शुद्धि करना संभव नहीं है और यदि विशिष्ट वैराग्यपूर्वक परिग्रह का त्याग होता है, तो चित्त की शुद्धि होती ही है; परन्तु प्रसिद्धि पूजा-प्रतिष्ठा-लाभ के निमित्त त्याग करने पर नहीं होती है ।