GP:प्रवचनसार - गाथा 221 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
अब परिग्रह सहित के नियम से चित्त की शुद्धि नष्ट होती है, ऐसा विस्तार से प्रसिद्ध करते हैं -
- [किध तम्हि णात्थि मुच्छा] परद्रव्यों के प्रति ममत्व रहित चैतन्य चमत्कार परिणति से विरुद्ध ममत्व कैसे नहीं है? वरन् है ही । किसमें ममत्व है ही? उस परिग्रह की इच्छा रखने वाले पुरुष में ममत्व है ही ।
- [आरंभो वा] अथवा मन, वचन, काय की क्रिया से रहित परम चैतन्य का प्रतिबन्धक (रोकनेवाला) आरम्भ कैसे नहीं है? अपितु है ही;
- [असंजमो तस्स] अथवा उस परिग्रह सहित के शुद्धात्मा की अनुभूति से विलक्षण, असंयम कैसे नहीं है? वरन् है ही ।
इसप्रकार श्वेताम्बर मत का अनुसरण करनेवाले शिष्य के संबोधन के लिये, निर्ग्रन्थ मोक्षमार्ग-स्थापना की मुख्यता से पहले स्थल में पाँच गाथायें पूर्ण हुईं ।
(अब अपवाद व्याख्यान परक तीन गाथाओं वाला दूसरा स्थल प्रारम्भ होता है ।)