GP:प्रवचनसार - गाथा 222 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
अब, 'किसी के कहीं, कभी, किसी-प्रकार कोई उपधि अनिषिद्ध भी है' ऐसे अपवाद का उपदेश करते हैं :-
आत्मद्रव्य के द्वितीय पुद्गलद्रव्य का अभाव होने से समस्त ही उपधि निषिद्ध है - ऐसा उत्सर्ग (सामान्य नियम) है; और विशिष्ट काल, क्षेत्र के वश कोई उपधि अनिषिद्ध है - ऐसा अपवाद है । जब श्रमण सर्व उपधि के निषेध का आश्रय लेकर परमोपेक्षासंयम को प्राप्त करने का इच्छुक होने पर भी विशिष्ट कालक्षेत्र के वश हीन शक्तिवाला होने से उसे प्राप्त करने में असमर्थ होता है, तब उसमें अपकर्षण करके (अनुत्कृष्ट) संयम प्राप्त करता हुआ उसकी बहिरंग साधनमात्र उपधि का आश्रय करता है । इस प्रकार जिसका आश्रय किया जाता है ऐसी वह उपधि उपधिपने के कारण वास्तव में छेदरूप नहीं है, प्रत्युत छेद की निषेधरूप (त्यागरूप) ही है । जो उपधि अशुद्धोपयोग के बिना नहीं होती वह छेद है । किन्तु यह ( संयम की बाह्यसाधनमात्रभूत उपधि) तो श्रामण्यपर्याय की सहकारी कारणभूत शरीर की वृत्ति के हेतुभूत आहार-नीहारादि के ग्रहण-विसर्जन (ग्रहण-त्याग) संबंधी छेद के निषेधार्थ ग्रहण की जाने से सर्वथा शुद्धोपयोग सहित है, इसलिये छेद के निषेधरूप ही है ॥२२२॥