GP:प्रवचनसार - गाथा 224.11 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
अब, निश्चयनय का अभिप्राय कहते हैं -
[जो रयणत्तयणासो सो भंगो जिणवरेहिं णिद्दिट्ठो] जो रत्नत्रय का नाश है, वह जिनेन्द्र भगवान द्वारा भंग कहा गया है । विशुद्ध ज्ञान-दर्शन स्वभावरूप अपने परमात्मतत्त्व की सम्यक् श्रद्धा उसका ही सम्यग्ज्ञान और उसमें ही सम्यक् अनुष्ठान (लीनता आचरण) रूप जो वह निश्चय रत्नत्रयरूप अपना भाव है, उसका नष्ट होना; वही निश्चय से नाश-भंग, जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहा गया है । [सेसं भंगेण पुणो] तथा शेष भंग द्वारा- शेष शरीर के किसी अंग के टूट जाने पर, मुण्ड हो जाने पर, वायु रोग हो जाने पर, वृषण (अण्डकोष) आदि के भंग हो जाने पर, [ण होदि सल्लेहणा अरिहो] सल्लेखना के योग्य नहीं होता है- लोक निन्दा के भय से निर्ग्रन्थरूप धारण करने योग्य नहीं है । कौपीन ग्रहण द्वारा उसकी भावना करने योग्य है- ऐसा अभिप्राय है ॥२५४॥
इसप्रकार स्त्री-मुक्ति-निराकरण के व्याख्यान की मुख्यता से ग्यारह गाथाओं द्वारा तीसरा स्थल समाप्त हुआ ।
(अब अपवाद मार्ग के विशेष व्याख्यान परक ग्यारह गाथाओं में निबद्ध अन्तिम चौथा स्थल प्रारम्भ होता है ।)