GP:प्रवचनसार - गाथा 224.1 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
अब, ग्यारह गाथाओं तक, स्त्री पर्याय से मुक्ति के निराकरण की मुख्यता से व्याख्यान करते हैं । वह इसप्रकार -
श्वेतांबर मत का अनुसरण करनेवाला शिष्य पूर्वपक्ष (प्रश्न) करता है --
[पेच्छदि ण हि इह लोगं] उपराग (रागादि मलिनता) रहित अपने चैतन्य की हमेशा प्रगटतारूप भावना को नष्ट करनेवाले प्रसिद्धि पूजा, प्रतिष्ठा, लाभरूप इस लोक को वास्तव में नही देखता है नही चाहता है । मात्र इस लोक को ही नही, [परं च] और अपने आत्मा की प्राप्तिरूप मोक्ष को छोड़कर स्वर्गों सम्बन्धी भोगों की प्राप्तिरूप पर--परलोक को भी नही चाहता है । ये सब कौन नही चाहता है ? [समणिंददेसिदो धम्मो] श्रमणेंद्रों द्वारा कहा गया धर्म-जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहा गया धर्म, ये सब कुछ नही चाहता है -- ऐसा अर्थ है । [धम्मम्हि तम्हि कम्हा] (तब) उस धर्म में कैसे [वियप्पियं] विकल्पित किया गया है- निर्ग्रन्थ (दिगम्बर) लिंग से, वस्त्राच्छादन द्वारा भिन्न किया गया है । इससे किसे भिन्न किया गया है ? [लिंगं] इससे आवरण सहित चिह्न को भिन्न किया गया है । किन सम्बन्धी सावरण चिन्ह को भिन्न किया गया है [इत्थीणं] स्त्रियों के सावरण चिन्ह को भिन्न किया गया है- इसप्रकार पूर्वपक्ष परक (प्रश्न परक) गाथा हुई ॥२४४॥