GP:प्रवचनसार - गाथा 226.1 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
अब, पन्द्रह प्रमादों द्वारा मुनिराज प्रमत्त होते हैं ऐसा प्रतिपादन करते है -
[हवदि] क्रोधादि पन्द्रह प्रमादों से रहित चैतन्य चमत्कार मात्र आत्मतत्त्व की भावना से च्युत रहते हुये होते हैं । कर्तारूप वे कौन होते हैं? [समणो] सुख-दुःख आदि में समान मनवाले मुनिराज होते हैं । वे मुनिराज किस विशेषतावाले होते हैं? [पमत्तो] वे मुनिराज प्रमत्त-प्रमादी होते हैं । वे किनसे प्रमादी होते हैं? [कोहादिएहिं चउहिं वि] चारों प्रकार के क्रोधादि द्वारा, [विकहाहिं] स्त्री कथा, भक्त कथा, चोर कथा, राजकथा रूप विकथाओं द्वारा, [तहिंदियाणमत्थेहिं] उसीप्रकार पाँच इन्द्रियों के अर्थों-स्पर्श आदि विषयों द्वारा प्रमादी होते हैं । और भी वे किसरूप हैं? [उवजुत्तो] उपयुक्त अर्थात् परिणत हैं । किन रूपों से परिणत हैं? [णेहणिद्दाहिं] स्नेह और निद्रारूप से परिणत हैं ॥२५७॥