GP:प्रवचनसार - गाथा 226 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
अब, अनिषिद्ध ऐसा जो शरीर मात्र उपधि उसके पालन की विधि का उपदेश करते हैं :-
अनादिनिधन एकरूप शुद्ध आत्मतत्त्व में परिणत होने से श्रमण समस्त कर्मपुद्गल के विपाक से अत्यन्त विविक्त (भिन्न) स्वभाव के द्वारा कषायरहित होने से, उस (वर्तमान) काल में मनुष्यत्व के होते हुए भी (स्वयं) समस्त मनुष्यव्यवहार से बहिर्भूत होने के कारण इस लोक के प्रति निरपेक्ष (निस्पृह) है; तथा भविष्य में होने वाले देवादि भावों के अनुभव की तृष्णा से शून्य होने के कारण परलोक के प्रति अप्रतिबद्ध है; इसलिये, जैसे ज्ञेय पदार्थों के ज्ञान की सिद्धि के लिये (घटपटादि पदार्थों को देखने के लिये ही) दीपक में तेल डाला जाता है और दीपक को हटाया जाता है, उसी प्रकार श्रमण शुद्ध आत्मतत्त्व की उपलब्धि की सिद्धि के लिये (शुद्धात्मा को प्राप्त करने के लिये ही) वह शरीर को खिलाता और चलाता है, इसलिये युक्ताहारविहारी होता है ।
यहाँ ऐसा तात्पर्य है कि :- श्रमण कषायरहित है इसलिये वह शरीर के (वर्तमान मनुष्य-शरीर के) अनुराग से या दिव्य शरीर के (भावी देवशरीर के) अनुराग से आहार-विहार में अयुक्तरूप से प्रवृत्त नहीं होता; किन्तु शुद्धात्मतत्व की उपलब्धि की साधकभूत श्रामण्यपर्याय के पालन के लिये ही केवल युक्ताहारविहारी होता है ॥२२६॥