GP:प्रवचनसार - गाथा 227 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
अब, युक्ताहार-विहारी मुनिराज के स्वरूप का उपदेश देते हैं -
[जस्स] जिन मुनि सम्बन्धी [अप्पा] आत्मा । वे किस विशेषतावाले हैं? [अणेसणं] अपने शुद्धात्मतत्त्व की भावना से उत्पन्न सुखरूपी अमृत के आहार से तृप्त होने के कारण, जिन्हे एषण-आहार की आकांक्षा-इच्छा नहीं है, वे अनेषण हैं, [तं पि तवो] उनके निश्चय से वही; आहार रहित आत्मा की भावनारूप उपवास लक्षण तप है, [तप्पडिच्छगा समणा] उसकी प्राप्ति के लिये प्रयत्नशील श्रमण, उस निश्चय उपवास लक्षण तप को (जो) चाहते हैं, (वे) उसके प्रत्येषक श्रमण हैं । और भी जिनके क्या है ? [अण्णं] अपने परमात्मतत्व से दूसरे भिन्न हेय हैं । वे दूसरे क्या हैं? [अणेसणं] अन्न की-आहार की-भोजन की एषणा-वांछा-इच्छा -अन्नेषण, दूसरी-भिन्न है । वह भोजन की इच्छा कैसी है? [भिक्खं] भिक्षा के समय होनेवाली-भिक्ष्य-भिक्षारूप है । [अध] अब, अहो! ऐसा होने पर भी [ते समणा अणाहारा] वे अनशन आदि गुणों से विशिष्ट श्रमणआहार ग्रहण करते हुये भी अनाहारी हैं ।
और उसीप्रकार जो निष्क्रिय परमात्मा की भावना करते हैं और पाँच समिति सहित विहार करते हैं वे विहार करते हुये भी अविहारी है- ऐसा अर्थ है ॥२५८॥