GP:प्रवचनसार - गाथा 228 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
अब, (श्रमण के) युक्ताहारीपना कैसे सिद्ध होता है सो उपदेश करते हैं :-
श्रामण्यपर्याय के सहकारी कारण के रूप में केवल देहमात्र उपधि को श्रमण बलपूर्वक-हठ से निषेध नहीं करता इसलिये वह केवल देहवान् है; ऐसा (देहवान्) होने पर भी, 'किं किंचण' इत्यादि पूर्वसूत्र (गाथा २४४) द्वारा प्रकाशित किये गये परमेश्वर के अभिप्राय को ग्रहण करके, 'यह (शरीर) वास्तव में मेरा नहीं है इसलिये यह अनुग्रह योग्य नहीं है किन्तु उपेक्षा योग्य ही है' इस प्रकार देह में समस्त संस्कार को छोड़ा होने से परिकर्मरहित है । इसलिये उसके देह के ममत्वपूर्वक अनुचित आहार ग्रहण का अभाव होने से युक्ताहारीपना सिद्ध होता है । और (अन्य प्रकार से) उसने (आत्मशक्ति को किंचित्मात्र भी छुपाये बिना) समस्त ही आत्मशक्ति को प्रगट करके, अन्तिम सूत्र (गाथा २२७) द्वारा कहे गये अनशनस्वभावलक्षण तप के साथ उस शरीर को सर्वारम्भ (उद्यम) से युक्त किया है (जोड़ा है); इसलिये आहारग्रहण के परिणामस्वरूप योगध्वंस का अभाव होने से उसका आहार युक्त का (योगी का) आहार है; इसलिये उसके युक्ताहारीपना सिद्ध होता है ।