GP:प्रवचनसार - गाथा 229 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
अब, युक्ताहारत्व को विस्तार से प्रसिद्ध करते हैं -
- [एक्कं खलु तं भत्तं] वास्तव में एक काल ही भोजन-एक बार ही किया गया आहार युक्ताहार है । एक बार ही किया गया आहार युक्ताहार क्यों है? एक बार किये गये आहार से ही, विकल्प रहित समाधि - स्वरूप-लीनता के सहकारी कारणभूत शरीर की स्थिति संभव होने से, एक बार ही किया गया आहार युक्ताहार है । और वह आहार कैसा है?
- [अप्पडिपुण्णोदरं] शक्ति के अनुसार भूख से कम ऊनोदर रूप है । [जहालद्धं] जैसा मिल जाय वैसा है, अपनी इच्छा से प्राप्त नहीं है ।
- [चरणं भिक्खेण] भिक्षाचरण से ही प्राप्त है, अपने द्वारा पकाया गया नहीं है ।
- [दिवा] दिन में ही किया गया है, रात में नहीं किया गया है ।
- [ण रसावेक्खं] उसमें रसों की अपेक्षा नहीं है वरन् रस सहित अथवा रस रहित आहार में समान मन है ।
- [ण मधुमंसं] शहद-मांस से रहित है; मधु-मांस से रहित है-
इससे क्या कहा गया है? इसप्रकार इन विशिष्ट विशेषणों से सहित ही आहार मुनिराजों का युक्ताहार है । ऐसा आहार ही युक्ताहार क्यों है? यदि ऐसा प्रश्न हो तो कहते हैं --
ज्ञानानन्द एक लक्षण निश्चय प्राणों की रक्षा स्वरूप, रागादि विकल्पों की उपाधि (संयोग) से रहित जो निश्चय नय से अहिंसा है और उसकी साधकरूप बाह्य में दूसरे जीवों के प्राणों के घात के त्यागरूप द्रव्य अहिंसा है; वह दोनों प्रकार की अहिंसा इस युक्ताहार में ही संभव है; अत: ऐसा आहार ही युक्ताहार है । इससे विपरीत जो आहार है, वह युक्ताहार नहीं है । इससे विपरीत आहार युक्ताहार क्यों नही? यदि ऐसा प्रश्न हो तो कहते है - इससे विरुद्ध आहार में द्रव्य- भावरूप हिंसा का सद्भाव होने से वह युक्ताहार नहीं है ॥२६०॥