GP:प्रवचनसार - गाथा 230 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
अब उत्सर्ग और अपवाद की मैत्री द्वारा आचरण के सुस्थितपने का उपदेश करते है :-
बाल, वृद्ध श्रमित या ग्लान (श्रमण) को भी संयम का जो कि शुद्धात्मतत्त्व का साधन होने से मूलभूत है उसका—छेद जैसे न हो उस प्रकार, संयत ऐसे अपने योग्य अति कर्कश (कठोर) आचरण ही आचरना; इस प्रकार उत्सर्ग है ।
बाल, वृद्ध, श्रमित या ग्लान (श्रमण) को भी शरीर का—जो कि शुद्धात्मतत्त्व के साधनभूत संयम का साधन होने से मूलभूत है उसका—छेद जैसे न हो उस प्रकार, बाल-वृद्ध-श्रांत-ग्लान को अपने योग्य मृदु आचरण ही आचरना; इस प्रकार अपवाद है ।
बाल-वृद्ध-श्रांत-ग्लान के, संयम का—जो कि शुद्धात्मतत्त्व का साधन होने से मूलभूत है उसका—छेद जैसे न हो उस प्रकार का संयत ऐसा अपने योग्य अति कठोर आचरण आचरते हुए, (उसके) शरीर का—जो कि शुद्धात्मतत्त्व के साधनभूत संयम का साधन होने से मूलभूत है उसका (भी) छेद जैसे न हो उस प्रकार बाल-वृद्ध-श्रांत-ग्लान ऐसे अपने योग्य मृदु आचरण भी आचरना । इस प्रकार अपवादसापेक्ष उत्सर्ग है ।
बाल-वृद्ध-श्रांत-ग्लान को शरीर का—जो कि शुद्धात्मतत्त्व के साधनभूत संयम का साधन होने से मूलभूत है उसका—छेद जैसे न हो उस प्रकार से बाल-वृद्ध-श्रांत-ग्लान ऐसे अपने योग्य मृदु आचरण आचरते हुए, (उसके) संयम का—जो कि शुद्धात्मतत्व का साधन होने से मूलभूत है उसका (भी)—छेद जैसे न हो उस प्रकार से संयत ऐसा अपने योग्य अतिकर्कश आचरण भी आचरना; इस प्रकार उत्सर्गसापेक्ष अपवाद है ।
इससे (यह कहा है कि) सर्वथा उत्सर्ग और अपवाद की मैत्री द्वारा आचरण का सुस्थितपना करना चाहिये ॥२३०॥