GP:प्रवचनसार - गाथा 232 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
अब, श्रामण्य जिसका दूसरा नाम है ऐसे एकाग्रता लक्षणवाले मोक्षमार्ग का प्रज्ञापन है । उसमें प्रथम, उसके (मोक्षमार्ग के) मूल साधनभूत आगम में व्यापार (प्रवृत्ति) कराते हैं :-
प्रथम तो, श्रमण वास्तव में एकाग्रता को प्राप्त ही होता है; एकाग्रता पदार्थों के निश्चयवान् के ही होती है; और पदार्थों का निश्चय आगम द्वारा ही होता है; इसलिये आगम में ही व्यापार प्रधानतर (विशेष प्रधान) है; दूसरी गति (अन्य कोई मार्ग) नहीं है । उसका कारण यह है कि -
वास्तव में आगम के बिना पदार्थों का निश्चय नहीं किया जा सकता; क्योंकि आगम ही, जिसके त्रिकाल (उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप) तीन लक्षण प्रवर्तते हैं ऐसे सकलपदार्थसार्थ के यथातथ्य ज्ञान द्वारा सुस्थित अंतरंग से गम्भीर है (अर्थात् आगम का ही अंतरंग, सर्व पदार्थों के समूह के यथार्थज्ञान द्वारा सुस्थित है इसलिये आगम ही समस्त पदार्थों के यथार्थ ज्ञान से गम्भीर है) ।
और, पदार्थों के निश्चय के बिना एकाग्रता सिद्ध नहीं होती; क्योंकि, जिसे पदार्थों का निश्चय नहीं है वह
- कदाचित् निश्चय करने की इच्छा से आकुलता प्राप्त चित्त के कारण सर्वत: दोलायमान (डावाँडोल) होने से अत्यन्त तरलता (चंचलता) प्राप्त करता है,
- कदाचित् करने की इच्छारूप ज्वर से परवश होता हुआ विश्व को (समस्त पदार्थों को) स्वयं सर्जन करने की इच्छा करता हुआ विश्वव्यापाररूप (समस्त पदार्थों की प्रवृत्तिरूप) परिणमित होने से प्रतिक्षण क्षोभ की काटता को प्राप्त होता है, और
- कदाचित् भोगने की इच्छा से भावित होता हुआ विश्व को स्वयं भोग्यरूप ग्रहण करके, रागद्वेषरूप दोष से कलुषित चित्तवृत्ति के कारण (वस्तुओं में) इष्ट-अनिष्ट विभाग द्वारा द्वैत को प्रवर्तित करता हुआ प्रत्येक वस्तुरूप परिणमित होने से
- कृतनिश्चय,
- निष्क्रिय और
- निर्भोग
और एकाग्रता के बिना श्रामण्य सिद्ध नहीं होता; क्योंकि जिसके एकाग्रता नहीं है वह जीव
- यह अनेक ही है ऐसा देखता (श्रद्धान करता) हुआ उस प्रकार की प्रतीति में अभिनिविष्ट होता है;
- यह अनेक ही है ऐसा जानता हुआ उस प्रकार की अनुभूति से भावित होता है, और
- यह अनेक ही है इस प्रकार प्रत्येक पदार्थ के विकल्प से खण्डित (छिन्नभिन्न) चित्त सहित सतत प्रवृत्त होता हुआ
इससे ( ऐसा कहा गया है कि) मोक्षमार्ग जिसका दूसरा नाम है ऐसे श्रामण्य की सर्वप्रकार से सिद्धि करने के लिये मुमुक्षु को भगवान- अर्हन्त सर्वज्ञ से उपज्ञ (स्वयं जानकर कहे गये) शब्दब्रह्म में, जिसका कि अनेकान्तरूपी केतन (चिह्न-ध्वज-लक्षण) प्रगट है उसमें, निष्णात होना चाहिये ।