GP:प्रवचनसार - गाथा 233 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
अब आगम के परिज्ञान से हीन के कर्मों का क्षय नहीं होता है, ऐसा प्ररूपित करते हैं --
[आगमहीणो समणो णेवप्पाणं परं वियाणादि] आगमहीन श्रमण स्वयं को तथा पर को ही नहीं जानता है, [अविजाणंतो अट्ठे] अर्थों--परमात्मा आदि पदार्थों को नहीं जानता हुआ [खवेदि कम्माणि किध भिक्खु] भिक्षु कर्मों का क्षय कैसे कर सकता है? किसी भी प्रकार नहीं कर सकता है ।
यहाँ इसका विस्तार करते हैं -- 'गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, चौदह मार्गणायें और उपयोग, ये क्रम से बीस प्ररूपणायें कही गई हैं ।'
इसप्रकार गाथा में कहे गये -- इत्यादि आगम को नहीं जानता हुआ और उसीप्रकार --
'जिसके द्वारा अपने शरीर से भिन्न अपना परमार्थ-परम-पदार्थ--भगवान आत्मा नहीं जाना गया है, वह अंधा दूसरे अंधों को क्या मार्ग दिखायेगा ।'
इस प्रकार दोहक गाथा में कहे गये, आगमपद के सारभूत अध्यात्म-शास्त्र को नहीं जानता हुआ पुरुष रागादि दोष रहित अव्याबाध सुखादि गुणस्वरूप अपने आत्मद्रव्य का, 'भावकर्म' शब्द द्वारा कहे जानेवाले रागादि अनेक विकल्प-जाल-रूप कर्मों के साथ, निश्चय से भेद नहीं जानता है; उसीप्रकार कर्म-शत्रु को नष्ट करने वाले अपने परमात्म-तत्त्व का ज्ञानावरणादि द्रव्य-कर्मों के साथ भी पृथक्त्व नहीं जानता है और उसी प्रकार शरीर रहित लक्षण शुद्धात्म-पदार्थ का, शरीर आदि नोकर्मों के साथ अन्यत्व नहीं जानता है । इस प्रकार भेद-ज्ञान का अभाव होने से शरीर में ही स्थित अपने शुद्धात्मा की रुचि-श्रद्धा नहीं करता है और सम्पूर्ण रागादि के त्याग-रूप से, उसकी भावना नहीं करता है; इसलिये उसके कर्मों का क्षय कैसे हो सकता है? किसी भी प्रकार नहीं हो सकता है । इस कारण मोक्षार्थियों को, परमागम का अभ्यास करना चाहिये -- ऐसा तात्पर्यार्थ है ॥२६७॥